ज़ूस ( inspired by friend's dog, who had to be dropped at common friend's place for few hours)
मैं अकेला इस भीड़ में
तेरा
एहसास ढूंढता हूँ
इस
मद मस्त शाम में मैं
मेरी
माँ ढूंढता हूँ
इस
भीड़ से नहीं अनजान
सभी
तो हैं अज़ीज़ तेरे
मैं
मानू या ना मानू
समझता
हूँ , वो भी हैं मेरे
पर
तू जो है
वो
तूही हो सकती है
मैं
जो ना चाहूँ भी
तुझपे
ही आस अटकी है
तेरे
अज़ीज़ों के क़दमों में
तेरी
ही आहट ढूँढता हूँ
इस
मद मस्त शाम में मैं
मेरी
माँ ढूंढता हूँ
क्या
नाराज़ थी तू मुझसे ?
जो
छोड़ गई अकेला
क्या
वजह रही होगी
आखिर
ख़ुशी कि है बेला
शायद
न चाहते भी
जाना
तुझे पड़ा है
आये
जब भी तू माँ
तेरा
दास यूं ही खड़ा है
इस
शोर कौतुहल में
तेरी
आवाज़ ढूंढता हूँ
इस
मदमस्त शाम में मै
मेरी
माँ ढूंढता हूँ
डरता
है दिल ये मेरा
न
कहीं तू भूल जाए
हो
रहा और अँधेरा
घेरे
बड़े डर के साए
पर
जानता हूँ मैं भी
की
तू सब जानती है
मेरे
बोलने से पहले
सब
पहचानती है
इसी
कश्मकश में
तेरा
हाथ ढूंढता हूँ
जो
दुलार की दे थपकि
वो
आभास ढूंढता हूँ
इस
मदमस्त शाम में मैं
मेरी
माँ ढूंढता हूँ हर दिन औ शाम में मैं
मेरी माँ ही ढूँढता हूँ
Well Written 👌🏼👌🏼 Keep it up 🙏🏼👍🏼
ReplyDeleteThank u
DeleteThat feeling and search for Mother...such a universal search. Sometimes we don't realize but we have it even when she is in the very next room. <3
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